नर्सिंग एक्ट के तहत जांच नहीं:कहीं तंग गली के मकान में अस्पताल, कहीं डिस्पेंसरी में ही मरीजों को कर रहे भर्ती, वहीं दवा दुकान भी खोली
राजधानी से करीब 40 किलोमीटर दूर गोबरा नवापारा बाजार के मुहाने पर घनी बस्ती। इसी इलाके की तंग गली में बाहर से भव्य दिख रही पीले रंग की बिल्डिंग… गोबरा नवापारा का चर्चित अस्पताल। इसमें एंट्री के तीन गेट। पहले गेट पर कांच का दरवाजा। इसमें घुसते ही 12 बाई 12 वर्गफुट का छोटा सा हॉल। क्लीनिक की तरह दिख रहा ये हॉल अस्पताल की ओपीडी है। यहां कुर्सियों में बुढ़े, बच्चे और कुछ युवतियां बैठकर डॉक्टर का इंतजार कर रही हैं। उसी के बाजू कंप्यूटर पर बैठे युवक के चारों ओर आयुष्मान कार्ड में एंट्री कराने वालों की भीड़ है। दायीं ओर छोटे छोटे कमरों में बिस्तर लगे हैं। अभी खाली हैं। बिल्डिंग के दूसरे एंट्री गेट से सीधे तीसरे फ्लोर पर जाने का रास्ता। इस फ्लोर पर बड़े से हॉल में रौशनी बेहद कम है। फाइवर के टुकड़ों से पार्टीशन कर इसे दो भागों बांटा गया है। दोनों ओर 4-4 बेड लगे हैं। एक बेड पर बुजुर्ग महिला लेटी है। ब्लड प्रेशर जांचने वाला मॉनीटकर लगा है। बुजुर्ग को घबराहट होने पर भर्ती किया गया है। पूरी बिल्डिंग में न हवा का इंतजाम है न फायर एग्जिट है। छोटे और तंग गलियारे और छोटे कमरों में इलाज। ये छत्तीसगढ़ का इकलौता अस्पताल नहीं है। शहर के चारों ओर के आउटर और छोटे कस्बों में सैकड़ों ऐसे अस्पताल और नर्सिंग होम चल रहे हैं। किसी ने कालोनी तो किसी ने घनी बस्ती के अपने मकान को अस्पताल में तब्दील कर लिया है। कहीं डाक्टर हैं तो कहीं बीएमएस की डिग्री लेने वाले अस्पताल चला रहे हैं। कहीं-कहीं छोटी डिस्पेंसरी खोलकर उसी के पीछे हिस्से में छोटे कमरों में बेड लगाकर मरीजों को भर्ती किया जा रहा है। हैरानी की बात है कि ऐसी गलियां जहां एंबुलेंस भी नहीं जा सकती, ऐसे मकानों में आठ-दस बिस्तर के अस्पताल चल रहे हैं और आयुष्मान के तहत मान्यता भी दे दी गई है। ऐसा इलसलिए क्योंकि स्वास्थ्य विभाग की टीम कभी जांच करने नहीं निकलती है। 2010 में लागू हुआ एक्ट, 19 हजार अस्पतालों में 9 हजार ने ही लिया लाइसेंस, नतीजा देखिए कालोनी में अस्पताल, डाक्टर का पता नहीं बोर्ड में लिख दिया 24 घंटे इमरजेंसी सेवा अभनपुर धमतरी मेन रोड पर सांई नगर कालोनी। बड़े मकान के बाहर अस्पताल का बोर्ड लगा है। पूरे अस्पताल में कहीं डाक्टर का नाम नहीं, लेकिन बोर्ड पर लिखा है 24 घंटे इमरजेंसी सेवा। भास्कर टीम शाम लगभग 4.30 बजे यहां पहुंची। अस्पताल के रिसेप्शन पर युवती ऐसे सफेद ड्रेस में बैठी थी। इसी से सटे कमरे में बेड पर दो मरीज लेटे थे। बाजू में छोटा सा मेडिकल स्टोर था। पेट दर्द की शिकायत लेकर पहुंचे खिलावन के परिजनों ने बताया कि दवा यहीं से खरीदनी पड़ती है। अस्पताल की पहली मंजिल पर एक कमरे में आईसीयू और ऑपरेशन थियेटर लिखा था। पता चला यहां कई बार बाहर से डाक्टरों को बुलाकर गभीर मरीजों के साथ डिलवरी भी कराई जाती है। गलत इलाज किया, एक माह अंबेडकर में रखना पड़ा वेंटिलेटर पर तब बची जान राजधानी से सटे मांढर गांव की डिगेश्वरी को तेज बुखार के कारण आउटर के एक अस्पताल में भर्ती कराया गया। वहां एक हफ्ते भर्ती रखकर 60 हजार लिए और ये कहकर छुट्टी दे दी कि ये नहीं बचेगी। घर ले जाओ। परिवार वाले किसी के कहने पर अंबेडकर अस्पताल ले आए। यहां तीन महीने तक बच्ची को पीडिया वार्ड में भर्ती रखकर इलाज किया गया। इस दौरान करीब एक माह अलग-अलग समय में उसे वेंटिलेटर में रखना पड़ा था। उसके बाद बच्ची की जान बची। अस्पताल अधीक्षक डॉ. संतोष सोनकर ने बताया कि लगभग हर विभाग में हफ्ते दो हफ्ते में ऐसे केस आते हैं, जिसमें छोटे अस्पतालों में केस बिगड़ा रहता है। नर्सिंग होम एक्ट के तहत ये जरूरी एक्ट के तहत कभी जांच नहीं प्रदेश में 19 हजार से ज्यादा छोटे बड़े नर्सिंग होम, क्लीनिक, लैब और बड़े अस्पताल हैं। उनमें से करीब 9 हजार ने ही नर्सिंग होम एक्ट के तहत रजिस्ट्रेशन करवाया है। बाकी सब बिना रजिस्ट्रेशन के चल रहे हैं। इन सेंटरों पर कार्रवाई तो दूर कभी नर्सिंग होम एक्ट के तहत रजिस्ट्रेशन करवाने के लिए नोटिस तक नहीं भेजा गया है। इसलिए इसे चलाने वाले मरीजों के जीवन के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। एक्सपर्ट व्यू- डॉ. एटी दाबके, पद्मश्री प्राप्त वरिष्ठ डाक्टर पूरी प्लानिंग से सख्ती करेंगे तब होंगे सफल सिस्टम को सुधारने प्लानिंग करनी होगी। गांव या पेरीफेरी में इलाज करने वालों की लिस्टिंग कर उन्हें बुलाकर काउंसिलिंग करनी चाहिए। इससे पता चलेगा वे क्या, कहां और कैसे इलाज कर रहे हैं। ऐसे डॉक्टर मरीज को देखते ही सीधे हाई डोज दवाएं देते हैं। इससे मरीजों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। इसी से केस बिगड़ते हैं।