कविता :- छूना है अब आसमान

मुझे कुछ कहना है,

चले थे हम जमीन से छूने

आसमान की बुलंदियों को

वाकिफ़ थे तब हम भी,

इस सच से कि शुरुआत है सिर्फ

एक लंबी थकाने वाली उड़ान और

एक लंबा सफर बाकी है,

पर ऐसे कैसे आशा की डोर तोड़ दूँ

अभी तो पँखों में हिम्मत भरनी है और

एक सीढ़ी आसमान तक बनानी है,

इम्तिहान तो हर कदम पर देने होंगे

अभी आस मगर बाकी है,

जानती हूँ मैं,

मान भी लिया इतना आसान नहीं

थकान सी होने लगती है

हौसले पस्त भी हो जाते हैं,

इस मन के यूँ तो कई बार फिर भी

इस जहाँ में कुछ ठान लो तो

मुश्किलें भी हार मान लेती हैं,

और फिर रुकना तो नहीं है

बस चलते जाना है मंजिल की ओर

पड़ें हों बाधाओं के पत्थर कितने भी,

कहना है,

ऐ आसमान, तू इतना भी

ना इतरा अपनी बुलंदियों पर

ऐसा मंजर भी एक दिन आएगा,

जब तू भी झुककर देखने आएगा

जुड़े हमेशा रहना है इस धरती से

पर छूना है उन ऊँचाइयों को

जो देती सी लगती हैं चुनौतियां सी,

ऐ दुनिया,

तू भी इस कदर ना

मेरे हौसले को शब्दों से छलनी कर

करना है साबित गलत उन सबको भी

जिनको चुभती हूँ कुछ करूँ ना करूँ

ये हौसला, लगन, उम्मीदें, सपने,

ख्वाहिशें सब आँखों मे लेकर

चल दिये हैं ख्वाबों की जमीन से

मंजिलों के आसमान तक

बटोरने ख्वाहिशों के चाँद तारों को

वहीं- कहीं पर अपना नाम टाँक दूँगी

और हाँ, मेरे मैं,

पक्का वाला वादा है ये मेरा तुमसे

एक दिन वो जरूर ही आएगा जब छू लूँगी

आसमान की उन बुलंदियों को मैं भी

नाम अपना भी लिखूँगी उस

आसमानी चादर पर

मुझसे जुड़ा हर शख्स करेगा

गुरूर मुझसे जुड़ने पर।

-Smita Saksena

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